वैभव श्रीवास्तव
कभी हमारा एक देश था,
सोचते थे, सुंदर है
नक़्शे पर देखो,
अभी भी वह है
हम नहीं जा सकते वहाँ,
प्रिय, हम नहीं जा सकते….
• डब्ल्यू एच ऑडेन
अगर पूर्व जन्म की अवधारणा में रत्ती भर भी भरोसा कर पाता तो यही सोचता कि पिछले जनम में मैं ज़रूर तिब्बती रहा होऊंगा। तिब्बती रंग-ढंग, उनकी बिरंगी झंडियाँ और वेश, उनके भूगोल और संस्कृति की जुगलबंदी से उपजी ध्वनियाँ और मोमोज़-थुपका जैसे उनके सरल-सुस्वादु पकवान – सब मुझे मेरी किसी भूली-बिसरी आत्मीय दुनिया की याद सी दिलाते हैं।
तिब्बत पर हिन्दी में उपलब्ध सामग्री को पिछले कुछ सालों से टटोलता रहा हूँ। पिछले बरस पटना की यात्रा में En Amee Bookstore पर अचानक एक नीली-पीली सी किताब पर नज़र पड़ी। ल्हासा का लहू – नाम देखते ही किताब उठा ली। तिब्बती कविता के सान्निध्य में तिब्बत के संघर्ष और प्रतिरोध को समझने का यह सार्थक अवसर था। रज़ा फ़ाउण्डेशन की रज़ा पुस्तक माला के अन्तर्गत वाणी प्रकाशन से छपी इस किताब में हिन्दी पाठकों के लिए तिब्बत पर बहुत कुछ एक साथ पिरोया गया है।हालाँकि आवरण से असंतुष्टि रही क्योंकि ऐसी सुंदर किताब का आवरण अंदर संकलित कविताओं जितना ही गहन होता तो अच्छा होता।
हिन्दी की चर्चित कवि अनुराधा सिंह के संपादन और काव्यानुवादों से सुसज्जित ये किताब तिब्बती प्रतिरोध की कविता से ही सशक्त परिचय नहीं कराती बल्कि तिब्बत को मुद्दा बनाने वाले कारकों की शिनाख़्त का एक प्राइमर या मोनोग्राफ़ भी बन जाती है। ज़हीन पाठक ये बात समझते हैं कि कविता और फ़िक्शन अक्सर ही नॉन फ़िक्शन से कहीं ज़्यादा पुर असर तरीके से किसी समस्या या त्रासदी को हम तक पहुँचाते हैं। इस किताब ने कविता और आलेखों को एक साथ लाकर ऐसे गंभीर और संवेदनशील मुद्दों को समझने के प्रयासों को सही राह दिखाई है।
तीन हिस्सों मे बँटी इस किताब में पहला हिस्सा तिब्बत-समस्या के परिचय और इतिहास को खुरचता है। ‘तिब्बत क्यों’ शीर्षक भूमिका में अनुराधा सिंह इस किताब की संकल्पना की वजहों और यात्रा को सूत्रबद्ध करती हैं। आगे सुधन्वा शेट्टी का संक्षिप्त लेख चीन और तिब्बत के संघर्ष को सरल भाषा और नैरेटिव में समझाने की कोशिश करता है।
दूसरे हिस्से में हमारे समय के तीन प्रमुख निर्वासित तिब्बती कवियों और उनकी प्रतिनिधि रचनाओं से रूबरू करवाया गया है। सबसे पहले भारत में रह रहे तिब्बती लेखक और ऐक्टिविस्ट तेनज़ीं सुण्डू की रचनाएँ आती हैं। ‘न्याय से चिरवंचित, धैर्य परीक्षित’ एक कवि अपनी बात कैसे कहेगा, शायद तेनज़ीं इसकी सशक्त मिसाल हैं :
“मेरा जन्म हुआ
तो मेरी माँ ने कहा
तुम एक रिफ़्यूजी हो”
दुनिया भर में दिल्ली के मजनूँ टीला जैसी कई रंगीली बस्तियाँ हैं जो तिब्बतियों की मेहनत और ज़िन्दादिली का झरोखा हैं लेकिन इस सतह के पीछे एक सतत पीड़ा भी है जो तिब्बतियों को हर रोज़ थोड़ा और थका देती है। तेनज़ीं के शब्दों में,
“मैं मजनूँ टीला की गन्दगी में
अपनी धोती लथेरते हुए थक गया हूँ…
बहुत थक गया हूँ
लड़ते हुए उस देश के लिए
जिसे मैंने कभी नहीं देखा।”
तेनज़ीं के बाद भूचुङ्ग डी सोनम की रचनाएँ आती हैं। ‘सोनम तिब्बत के श्रेष्ठ आलोचकों और अनुवादकों में शुमार होते हैं और तिब्बती व अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में एक जैसी दक्षता से लिखते हैं।’
निर्वासन कितनी भोली और साधारण एषणाओं को भी दूर की कौड़ी बना देता है, इसे सोनम की इन पंक्तियों में देखिये :
“एक दिन तुम और मैं
ल्हासा के एक गंदले होटल में
एक कटोरा थुकपा खाएंगे…”
बीतता समय तिब्बती आंदोलन को किस हताशा से भर दे रहा है उसकी गूंज भी सोनम की पंक्तियों में मिलेगी :
“मैं चाहता हूँ
काश! मेरे चुप होने से पहले
बहरे हो जाओ तुम।”
अंतिम साहित्यकार सेरिंग वांग्मो धोम्पा हैं, जिनकी कविताएँ ‘अभिनव संरचनाओं और प्रणालियों के माध्यम से तिब्बती समुदाय के बुज़ुर्गों की यादों को दर्ज करते हुए, विस्थापित तिब्बतियों की अतीत के प्रति ललक को अभिव्यक्त करती हैं।’ मसलन :
“वह दिल ले आओ जो घाटे का सौदा कर सके,
जो खण्डित होने से न डरे।”
या फिर,
“एक दृश्य खो चुकने के बाद
आप वाक्यों में रहना सीख लेते हैं।”
किताब के तीसरे हिस्से में तिब्बती कविताओं पर तीन सुचिंतित आलेख हैं। प्रथम आलेख डॉ. अप्पू जैकब जॉन की लिखी किताब ‘निर्वासन में प्रतिरोध’ से लिया गया विस्तृत अंश है जो समकालीन तिब्बती कविता की प्रमुख प्रवृत्तियों और प्रेरणाओं का निरूपण करता है। दूसरा आलेख अंग्रेज़ी में लिख रहे तिब्बती कवियों की उत्तर औपनिवेशिक और उसके बाद की वैचारिक प्रवृत्तियों की पड़ताल करता है। आख़िरी आलेख तिब्बती कविता के इतिहास, वर्तमान और भविष्य का कलाइडोस्कोपिक अध्ययन है।
डॉ. अप्पू की किताब से लिया गया अंश तिब्बती समुदाय की एक उल्लेखनीय और विलक्षण ख़ासियत को छूता है। तिब्बत पर हुए कुछ अन्य शोधों का हवाला देते हुए वो कहते हैं : “निर्वासित तिब्बती समुदाय दुनिया में सबसे लचीले और सफल शरणार्थी समूहों में से एक है। वे तिब्बती लोग जो कम-से-कम दो सौ वर्षों से ‘दुनिया की छत’ पर अपने एकान्त में रहते थे, जिनका अन्य समाजों और संस्कृतियों से शायद ही कोई सम्पर्क हुआ करता था, उन्होंने निर्वासन में तीन उल्लेखनीय कार्य किये हैं। सबसे पहला यह कि आज प्रत्येक तिब्बती और उसका परिवार आर्थिक रूप से अपने पैरों पर खड़ा है और व्यक्तिगत रूप से आत्मनिर्भर है। दूसरे, एक ऐसी स्कूल प्रणाली का निर्माण किया गया है, जिसने बड़े पैमाने पर निरक्षर समाज को दो पीढ़ियों के भीतर पूरी तरह साक्षर कर दिया है, यह उनके राजनीतिक संकल्प का इच्छापत्र है। और अन्त में, परम पावन चौदहवें दलाई लामा जो तिब्बतियों के लौकिक व आध्यात्मिक नेता हैं, ने स्वयं लोकतन्त्रीकरण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए अपनी शक्तियों को कम कर दिया… ”
एक ऐसी दुनिया में, जहाँ त्रासदी और उत्पीड़न झेल रहे समुदायों का हिंसा और आतंकवाद की ओर रूझान होते जाना लोगों को एक स्वाभाविक प्रक्रिया लगने लगती है, वहाँ तिब्बती समुदाय का लगभग अन्तहीन अहिंसक और समायोजनशील आंदोलन एक बेहतर और संवेदनशील दुनिया की उम्मीद को बचाए रखता है। तिब्बतियों और कश्मीरी पंडितों की कहानी इस जगह पर आकर जुड़ जाती है। अनुराधा सिंह किताब की शुरुआत में कहती भी हैं :
तिब्बत विरह और संकल्प का रूपक है
जबकि संभव था पराजय और हिंसा का हो जाता।
हालाँकि यह स्थिति जितनी उम्मीद जगाती है उतना ही तिब्बतियों के लिए कई बार यातना का सबब भी बनती है। तेनज़ीं की यह कविता इसी दुविधा का आईना है :
“मेरे पिता
हमारे घर की, गाँव की, देश की रक्षा करते हुए मारे गये,
मैं भी लड़ना चाहता हूँ
लेकिन हम बौद्ध हैं।
लोग कहते हैं कि हमें
शान्तिप्रिय और अहिंसक होना चाहिए
इसलिए मैं अपने शत्रु को माफ कर देता हूँ
कभी-कभी मुझे लगता है
कि मैंने अपने पिता को धोखा दिया है।”
तिब्बत के संदर्भ में भारत की भूमिका पर भी यह किताब आंशिक रोशनी डालती है। 2017 में दलाई लामा के कहे ये शब्द समझिये : “मैं पिछले 58 वर्षों से भारत में रह रहा हूँ और इसलिए, मैं भारत का बेटा हूँ। धर्मनिरपेक्षता के क्षेत्र में भारत जैसा कोई दूसरा देश नहीं है। जब मैं तिब्बत में था तो मेरे विचार संकीर्ण थे। लेकिन जब मैं अपनी मातृभूमि से बाहर निकला और भारत आया, तो मैंने तिब्बत के साथ-साथ पूरी दुनिया के बारे में व्यापक सोच विकसित की।”
भारत ने निश्चित तौर पर तिब्बत के संघर्ष और संरक्षण में बेहद ज़रूरी भूमिका निभाई है। लेकिन हमें तिब्बतियों के लिए और अधिक संवेदनशील होना पड़ेगा। उन्हें अपनी संस्कृति का अंग बनाकर भी उन्हें बेगाना बनाए रखने की दोहरी प्रक्रिया में हम उनकी सहजता और सांस्कृतिक मासूमियत को अनजाने में ही लगातार चोट पहुँचा रहे। ‘चिंग चौंग’ जैसी नस्ली टिप्पणियों के रोज़मर्रा के दंश तो हैं ही साथ ही रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट जैसी रूटीन क़वायदें भी तिब्बतियों के शोषण और उत्पीड़न की वजह बन जाती हैं।
संकीर्ण विचारधाराओं के आतंकी आग्रह पर भी तिब्बत समस्या एक प्रश्नचिन्ह लगाती है। वर्तमान दलाई लामा का यह स्वीकार कि वो जब तक तिब्बत में थे संकीर्ण धार्मिक सोच से प्रेरित थे और भारत आकर उनकी सोच व्यापक हुई – यह उतना ही उल्लेखनीय सच है जितना बड़ा सच ये कि ‘कम्युनिस्ट’ चीन ने बड़ी सरलता से तिब्बत की “दीवारों पर बड़ा सा लाल नारा लिख दिया था कि जो सर बाहर निकलेंगे, कुचल दिये जाएंगे।”
तिब्बत हमारी दुनिया के बहुत सारे अंतर्विरोधों का प्रभावशाली चलचित्र है। उससे बहुत कुछ सीखा और गुना जा सकता है। इस विषय पर इस किताब जैसे साहित्यिक-सांस्कृतिक हस्तक्षेप लगातार होते रहने चाहिए। हम जो भी हैं, जहाँ भी हैं तिब्बतियों के लिए प्रेम, शुभेच्छा और उनके अदम्य धैर्य के लिए कृतज्ञता से भरकर अपने आसपड़ोस को और बेहतर बनाने की कोशिश कर सकते हैं। जब भी किसी गाड़ी या दरवाज़े पर ओम् मणि पद्मे हुम की रंगीन झंडियाँ फहरती हुई दिखती हैं या किसी नुक्कड़ पर मोमोज़-लफिंग का स्टाॅल नुमाया होता है, मेरे ज़ेहन में तिब्बत अपनी समूची त्रासदी और उपलब्धि के साथ जी उठता है।
बेहद सुंदर लिखा वैभव और अब मैं सोच रही हूँ यह किताब कितनी सुंदर होगी।