नीलिमा पांडेय
हम किन चीजों को याद रख लेते हैं? यहां सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट वाला मामला नहीं होता। उस बात में या तो अप्रत्याशितता हो या वह साधारणता हो या वह किसी एक्सट्रीम भाव को जगा जाती हो।
– नीलाक्षी सिंह के उपन्यास ‘हुुकुम देश का इक्का खोटा’ से (पृष्ठ : 139)
मेरे बेहद कम पढ़े में ऐसी कोई कृति अभी तक नहीं गुज़री। एक सांस में पढ़ जाना बहुत दिन बाद हुआ। पढ़ कर ठहर जाना भी। पढ़ना भी क्या था , जीवन पर मंडराती अनिश्चितता और उसके साए में यादों के सैलाब में डूबता उतराता मन।
पोशाक का रंग तो आसमानी था ही क़िस्से का फैलाव भी आसमान सरीखा है जो कहीं-कहीं नील लिए ज़ख्म सा है जिसमें कुलबुलाहट है, मुस्कुराहट है, उकताहट है और है एक होड़- व्याधि से; उसे पछाड़ देने की।
गहरी तकलीफ़ और दर्द की छटपटाहट भी रही होगी। मजाल कि उसका एक रेशा भी आपको छू जाए। तकलीफ़ का ऐसा निरपेक्ष बयान कि बस ठगे से देखते रह जाएं। जीवन जीने की ये कला जिसने साध ली उसके सामने तो हर तकलीफ़ को बौना हो जाना है।
मन की स्याही के सहारे काग़ज़ पर बिखर जाना इस संस्मरण की ख़ुसूसियत है। दुआ है कि इसे देखने-पढ़ने की सलाहियत हमें हासिल हो। सफ़हा दर सफ़हा लेखिका के साथ-साथ हम अपने मन के भीतर उतरते चलते हैं। बातें उनके बचपन की और यादें अपने बचपन की , दोनों के बीच एक संजीदा जुगलबंदी चलने लगती है ।
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तमाम रिश्तो की नब्ज़ पर हाथ रखता यह दस्तावेज़ एक लड़की के जीवन की रोज़मर्रा की अड़चनों, लगावटों और हसरतों का बयान है जो शफ़क़ के रंगो सरीखा हम पर खुलता है। अपनी यादों के पिटारे के साथ कहीं वह हमसे 03 साल की बच्चे की तरह मिलती है तो कभी 23 या 35 की उम्र में। उम्र कोई हो परिस्थितियों और मुसीबतों के साथ दो-दो हाथ करने का उसका जज़्बा अविचल है ।
दो बहनों के रिश्ते की गर्माहट यादों के इस दरख़्त को नम बनाए रखती है । डूबते-डूबते भी हर बार हम उबर ही आते हैं। बहन ‘मोमिन-ए- मुब्तिला’ की हैसियत से हर याद में मौजूद है। लेखिका ने बहुत शिद्दत से अपने बचपन और बहन को याद किया है। यह शिद्दत ही इस बयान का नूर है।
प्रसंगवश स्कूल में लेखिका के बाल-प्रेमी की अर्हता की पड़ताल करता अभिभावकत्व के गाम्भीर्य से पूछा गया बहन का सवाल , “मैथ्स में कितने नंबर लाते हो?” ठठाकर हंसने पर मजबूर कर देता है।
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संस्मरण को पढ़ने में समाधिस्थ होने के बाद शुरुआत और अंत का भेद मिट जाता है। बस यही महसूस होता है कि जीवन है जो ओर-छोर फैला हुआ है। नेपथ्य से धम- धम करती एक आवाज ‘सारे नियम तोड़ दो’ के उद्घोष के साथ कद्दावर तरीके से बार-बार उभरती रहती है। हालांकि ये तोड़फोड़ और ध्वंस नितांत आंतरिक है। बाहरी दुनिया उससे अछूती है। ज़ाहिर है कि जोख़िम उठाने का यह साहस गहरी जिजीविषा से आता है।
बानगी के तौर पर हम देखते हैं कि इस पूरे बयान में गहरी शारीरिक तकलीफ़ से गुज़रने के बावजूद लेखिका अपने पाठक को भावनात्मक रूप से असुरक्षित और कमजोर पड़ने से बचा ले जाती हैं। क्या तो हुनर है! पढ़ते हुए बार-बार बस यही ख़्याल आता है।
यही नहीं हर्फ़ दर हर्फ़ ये बात साफ़ तौर पर दिखाई पड़ती है कि जीवन की बारीकियों पर उनकी गहरी नज़र है । यही नज़र उन्हें बेहतरीन इंसान के खाते में खड़ा करती है । साहित्य की दुनिया में इंसानियत का पलड़ा हमेशा भारी रहे , इसी उम्मीद के साथ उन्हें सलाम।
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संस्मरण की भाषा बहुआयामी है , ताजगी से भरी हुई। मेरे लिए बेहद अपनी, घर के किसी कोने के संवाद जैसी अंतरंग । भाषा की ये विशिष्ट शैली नीलाक्षी जी का सिग्नेचर भी है। इसमें एक रागात्मक-लयात्मकता है जो अपने परिवेश के मनोवैज्ञानिक पक्षों को उद्घाटित करती चलती है।
इस संस्मरण में हर माह का ब्यौरा एक हस्तलिखित- चित्रांकित लिपि वाले आवरण से शुरू होता है । वक़्त के किसी लम्हे में ठिठके हुए इन चित्रांकनो में मीन ने सर्वाधिक उपस्थित दर्ज़ करवा कर बाजी मार ली है । दूसरे नंबर पर आंखें हैं। उनके अलावा ख़ूबसूरत कलगी वाला मोर , स्त्री या लड़की , बिलौटा , फूल -पत्तियां, संगीत की धुन, सांप-सीढ़ी, लिफाफे, खिड़की, क्रिस- क्रॉस वगैरह मन का आइना बने उपस्थित हैं। यूँ महसूस होता है उनका होना लेखिका के व्यक्तित्व में कला-पक्ष के प्रबल होने की गवाही भी है।
दरअसल कलात्मकता से दीप्त ये पन्ने इस संस्मरण का यू .एस.पी. हैं। इन्हें अगर और ठीक से समझना है तो वरा कुलकर्णी से मिलना होगा। यहां तो उनके (वरा) तिलिस्म को भेदने की चाबी भर मौजूद है।
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पीछे छूट जाना बात का हो या इंसान का हमें बुरा नहीं मानना चाहिए। इस ताक़ीद से एकबारगी मन धक से रह जाता है। एक तरफ़ इलाज की दुरुह प्रक्रिया है तो दूसरी तरफ सरल बचपन है। हम समय और वक़्त के समानांतर खड़े उनमें फ़र्क की बारीक़ रेखा को देखने के लिए चौंडी की गई आंखों से ढेर सारे रंगों से रूबरू होते हैं।
फ़रवरी है, गुलाबी सर्द मौसम है। सामन्ती परिवेश में बेटियों की शिक्षा और स्वतंत्रता के पैरोकार सख़्त दिखते नर्म दिल पिता हैं, लिखती-पढ़ती शोधरत माँ की स्वर्णिम आभा है, दोस्त सरीखी नानी और माँ की जोड़ी है, माँ से नेह रखती दादी हैं, मासी-बहन-सखियां-चाची; स्त्रियों का एक भरा-पूरा सुंदर संसार है। इनके बरक्स बालपन में की गई शैतानियां है, स्वअर्जित ‘फ्रॉड कंपनी’ संज्ञा की सम्मान-पूर्वक स्वीकारोक्ति है। किताबों के साथ बरती गई चोर-सिपाही-संरक्षक की भूमिका है, कीमोथेरेपी और रेडिएशन कक्ष का कार्य-व्यापार है, सिनेमा जाकर चाल सुधार का गम्भीरअभियान है। साथ में सामन्ती पृष्ठभूमि और स्त्री द्वेष के बयान हैं।
स्त्रीद्वेष का ज़िक्र बड़ा लिरिकल है। गाने भोजपुरी हुए तो क्या। उनके बोल का एक हिज़्ज़ा भी न लिखकर संगीत -सुधियों को सैंडिल से नवाज़ने के अंदाज़-ए-बयाँ से पूरा बाइस्कोप दिखा दिया है।
इलाज़ के दौरान एक कमज़ोर लम्हा भी आता है। पॉर्लर में विजिटिंग कार्ड थमता व्यवसायिक हाथ जब पलटकर नेह से माथे पर बिंदिया सजाता है तो धड़कनों का आरोह-अवरोह कानों तक साफ़ सुनाई देता है।
पूरा मंज़र देर तक धड़कता रहता है। इस एक लम्हें में ख़ुद से किया गया कौल कमज़ोर पड़ जाता है। कुछ देर के लिए शब्द धूमिल पड़ जाते हैं। 200 पन्नों के सफ़र में सिर्फ़ एक बार।
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समय और वक़्त के बरक्स रंग ही रंग हैं। इन सारे गुलाबी , आसमानी , सफ़ेद-स्याह गर्म-सर्द रंगों पर हाजीपुर का हरा रंग भारी है।