भटकने की ईमानदारी : गीतांजलि श्री का कहानी-संग्रह ‘यहाँ हाथी रहते थे’

Geetanjali Shree
गीतांजलि श्री (Photo credit : publishingperspectives.com )

वैभव श्रीवास्तव

सच तो ये है कि हमारे जीवन में सब कुछ कहानी है और हर चीज़ कहानी कहती है।
गीतांजलि श्री, एक साक्षात्कार में.

गीतांजलि श्री की भाषा पर पिछले दिनों खूब बहस हुई है। आलोचक मदन सोनी ने अपने निबंध ‘भाषा की कथा’ में इस बात का ज़िक्र किया है कि निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल और कृष्णा सोबती आदि साहित्यकारों की कथा-भाषा ‘ऐक्टिव सेंस’ में काम करती है। मुझे कई मायनों में मदन सोनी की ये स्थापना गीतांजलि श्री की भाषा पर भी लागू होती दिखती हैं। यहाँ भाषा विवरण का माध्यम भर नहीं है, वह खुद हर इमोशन – हर परिस्थिति में रच-बस कर उनका ऐक्टिव रूप बन जाती है।

यह ज़रूर है कि गीतांजलि की भाषा में सहज प्रवाह नहीं है जिससे पाठकीय रस बाधित होता है। यह बात रेणु समेत कई बड़े लेखकों के यहाँ रही है इसलिए हिन्दी के गंभीर पाठक इस भाषा की खासियत और कमियों – दोनों से वाक़िफ़ हैं ही। गीतांजलि के सन् 2012 में आए कहानी-संग्रह ‘यहाँ हाथी रहते थे’ में उनकी भाषा अपने इसी बहसज़दा कलेवर में उपस्थित है। करीब 185 पृष्ठों के कुल ग्यारह कहानियों वाले इस संग्रह को राजकमल प्रकाशन ने इस साल नई साज-सज्जा और मनीष पुष्कले की कूची से निकले सुंदर आवरण-चित्र के साथ छापा है।

गीतांजलि शब्दों को लेकर बहुत सतर्क और संवेदनशील हैं और उनके गद्य के ज़िम्मेदार पाठक इसे खूब समझेंगे। इस बाबत एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा भी था कि ‘शब्द इतना अधिक हमारे रोजमर्रा के जीवन व्यापन का अंग है कि उसके प्रति हम हद से ज़्यादा सहज हैं, लापरवाह, उसे अमूमन बस उसके फौरी मतलब का वाहन बना देते हैं। समझने वाली बात यह है कि शब्द को सिर्फ उसके मतलब से जोडना, उसके लिए, केवल बौद्धिक समझ और संवेदना दिखाना है। जबकि उसकी भी दरकार है, एक ऐंद्रिक समझ की। शब्द की एक स्वतंत्र गरिमामयी उपस्थिति है। परिपूर्ण व्यक्तित्व है, जिसे महसूस किया जा सकता है।’

साहित्य पर होने वाली नॉर्मेटिव बहसों से वो कम ही इत्तफ़ाक़ रखती हैं। उनके हिसाब से : “साहित्य एक खुली जगह और ख़ाली जगह, जिसे तरह-तरह से भर-रच सकते हैं। आज़ाद भ्रमण कर सकते हैं। शिल्प, शैली, कथा, यथार्थ, कल्पना, काल, रफ़्तार – अपने को निरंतर अनगिनत तरीक़ों से आजमा सकते हैं। फिर क्यों कोई बताए कि इस बंदिश में रहो, इस तरह से रचो और इसपर रचो। मुझे उन पाठको, आलोचकों से परेशानी है, जो साहित्य की केवल सामाजिक बल्कि समाजशास्त्रीय परख ही करते हैं। वे साहित्य और समाज दोनों को सीमित करते है”

गीतांजलि की उक्त मान्यताएं इस कहानी-संग्रह में खूब खिलकर दिखती हैं। संग्रह की पहली कहानी ‘यहाँ हाथी रहते थे’ विकास के प्रचलित मॉडल पर एक चिर-परिचित सवाल खड़ा करती है। निर्मल वर्मा ने अपने एक निबंध में कहा है कि विकास का हमारा पूरा इतिहास दरअसल आत्म निर्वासन का इतिहास है। कहानी में ये बात अपनी पूरी पीड़ा के साथ उपस्थित होती है। मजहबी दंगे और तथाकथित मॉडर्निटी कैसे एक साथ ज़िंदा रह सकते हैं और इन्हें इनकी वास्तविक खुराक कहाँ से मिलती है गीतांजलि श्री को पढ़ते हुए इसको पहचानना कठिन नहीं रह जाता।

Yahan Hathi Rahte The
गीतांजलि श्री का कहानी संग्रह ‘यहां हाथी रहते थे’

‘इति’ कहानी बूढ़ेपन की त्रासदी और कॉमेडी दोनों को अलग-अलग स्तरों पर छूती है। परिवार संस्था की वजह से आने वाली सेक्योरिटी और इसी में निहित अन्याय – दोनों ही बातें कहानी में जब-तब सहजता और सरसता से झांकती चलती हैं।

‘मैंने अपने आप को भागते हुए देखा’ कहानी उत्तराधिकार की पेचीदगियों पर रोशनी डालते हुए कमल हासन की फिल्म ‘नायकन’ और मारियो पूज़ो के उपन्यास ‘गॉडफ़ादर’ की याद तो दिलाती ही है साथ ही अपनी शैली और विषयवस्तु में कहीं प्रेमचंद तो कहीं रेणु की कहानियों की भी याद दिलाती चलती है। उत्तराधिकार में ज़िम्मेदारी तो होती ही है, साथ ही झीने स्तर पर अन्याय भी मौजूद होता है – ये कहानी पढ़ते हुए खूब महसूस होता है।

‘थकान’ कहानी एक जापानी कब्रिस्तान में एक ‘अवैध’ प्रेमी जोड़े की मुलाकात बयाँ करती है। कब्रों के बीच बैठे इन प्रेमियों का लगभग रिस चुका प्रेम कब्रों में बंद ज़िंदगियों की ही तरह गया बीता दिखने लगता है। जापान के तीन ख़ास फूलों चैरी, प्लम और क्रिसैंथिमम की महक के साथ ज़िन्दगी की महक से भरा कहानी का परिवेश आपको एक साथ उदासी और सुकून के बीच पेंडुलम सा झुलाता रहता है।

‘सुदूर देश’ जापान में रह रहे इन प्रवासी प्रेमियों की यह मुलाकात जापान की संस्कृति का परिदृश्य पाकर और इंटेंस बन कर सामने आती है। एक मुलाकात तक सीमित पाँच छः पृष्ठ की यह छोटी सी कहानी प्रेम में निहित त्रासदी को छूने के प्रयास में किसी उपन्यास या पेंटिंग सा प्रभाव छोड़ जाती है बशर्ते आप इसे ठहराव के साथ बरतें और एक-एक पैराग्राफ़ को तसल्ली से पढ़ें।

‘चकरघिन्नी’ और ‘लौटती आहट’ कहानियाँ तथाकथित आधुनिक हो रहे समय और समाज में भी विक्षिप्त कर देने लायक स्त्रीद्वेषी (misogynist) और पुरुष-प्रधान सोच के बीच स्त्रियों की असहाय स्थिति की विडंबना को दिखाती है। आलोचक जगदीश्वर चतुर्वेदी ने एक आलेख में लिखा है कि गीतांजलि जी का लक्ष्य स्त्रीवाद तक न सीमित होकर मानवतावाद तक भी जाता है जो दरअसल ‘फेमिनिज़्म का सबसे विकसित रूप है।’ गीतांजलि श्री ख़ुद कहती हैं – ‘हम लोग अपने अंदर औरत और मर्द दोनों का जज़्बा जगा सकते हैं। सिर्फ़ शरीर की बात नहीं है, हमारा मानसिक संसार भी बढ़ेगा।’ इन कहानियों में भी इस समझ की ओर इशारा दिखता है।

‘तितलियाँ’ कहानी पढ़ते हुए केरल की हरियाली मन को हरा करने लगती है। सुख और दुख, उत्साह और उदासी के बीच झूलती कहानी आखिर में हमें भी उसी झूले पर ला छोड़ती है। मृत्यु की अनिवार्य उपस्थिति ज़िंदगी को शिद्दत से जीने की सबसे बड़ी वजह होनी चाहिए – कहानी इस बात को बड़ी मुलायमियत के साथ हम तक पहुंचाती है।

‘इतना आसमान’ कहानी आधुनिक इंसान के कुदरत से दूर होते जाने की नियति और फिर भी उसके करीब होने की उत्कंठा को मर्मिकता से स्पर्श करती है। औरतों का प्रकृति के साथ रिश्ता आदमियों की तुलना में अब भी कहीं गहरा है क्या? कहानी पढ़ते हुए ये सवाल जब-तब पाठक के मन में सिर उठाता रहता है। लेखिका कहती भी है – ‘दोनों, आसमान और औरत, आ और औ, एक दूसरे की बाट जोह रहे थे।’

‘मार्च माँ और साकुरा’ कहानी सीधे ज़ेहन पर वार करती है, गहरा वार। माँ-बेटे का प्रेम यहाँ परदेस की नई ज़मीन पाकर नये कलेवर में आता है। माँ जापान में रह रहे बेटे के पास आकर आज़ादी चखती है तो बेटे में छुपी पितृसत्ता असहज होकर सर उठाती है लेकिन मार्च महीने में साकुरा फूलों के खिलने के साथ इस सब से आगे निकलकर माँ और बेटा दोनों ज़िंदगी की बारिश में भरपूर भीग ही जाते हैं।

‘बुलडोज़र’ भी एक बेहद संवेदनशील कहानी है। मृत्यु की अनिवार्यता और अनप्रेडिक्टेबिलिटी दोनों को एक साथ पकड़कर इस कहानी में गूंथा गया है जहाँ जापान की ‘शिंकांसेन’ यानी बुलेट ट्रेन में की जा रही यात्रा और माउंट फुजी को देखने का रोमांच ज़िन्दगी की भूख का मेटाफ़र बन जाते हैं।

‘आजकल’ इस संग्रह की मेरी पसंदीदा कहानी है। सांप्रदायिकता पर हो रही बहसों में उबाऊ सैद्धांतिकता और विचारधारात्मक आग्रह से परे यह कहानी सांप्रदायिकता में निहित असली त्रासदी – इंसान से उसकी इंसानियत छिन जाने- का प्रभावी दस्तावेज़ है। अपने अंतिम पैराग्राफ़ में ये कहानी पूर्वाग्रह से भरे पाठकों को अचानक से एक तमाचा सा जड़ती है और एक स्तर पर अपने कथ्य में काफ़्का के कथा-संसार से जा मिलती है।

इन सभी कहानियों का वितान और इनके विषयों की विविधता प्रभावित करती है। ये बहुरंगी कहानियाँ गीतांजलि श्री की ‘मंडेन में भी एपिक’ देखने वाली उस दृष्टि की परिचायक हैं जहाँ हर चीज़ अपने आप में एक कहानी कहती है।

आलोचक नामवर सिंह ने गीतांजलि श्री की रचनात्मकता पर एक बार उनसे कहा था :

दयार-ए-फ़न में जहाँ मंज़िलें भी फ़ानी हैं
तमाम उम्र भटकने का हौसला कीजिए

उनकी भटकने की यही ईमानदारी उनके गद्य की सबसे बड़ी ताक़त है। हिन्दी साहित्य को अपने ऐसे ईमानदार लेखक पर गर्व करना चाहिए।

आपकी प्रतिक्रिया का स्वागत है

1 COMMENT

  1. थकान, आजकल ,लौटती आहट ये तीन कहानियां पढ़ी हैं इस संग्रह की, आपकी समीक्षा पढ़ कर उन्हें पढ़ने की उत्सुकता और बढ़ गयी है। शुक्रिया इस सुंदर समीक्षा के लिए💙

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