अधूरी चीजों का देवता : अधूरेपन की पूर्णता चीन्हने की कोशिश करता गीत-गद्य

गीत चतुर्वेदी की किताब अधूरी चीजों का देवता पर वैभव श्रीवास्तव

बिगाड़कर बनाये जा, उभारकर मिटाये जा
कि मैं तेरा चिराग़ हूँ, जलाये जा, बुझाये जा।
– जोश मलीहाबादी

हिन्दी के चर्चित कवि और गद्यकार गीत चतुर्वेदी (Geet Chaturvedi) अपनी किताब ‘अधूरी चीज़ों का देवता’ के अंतिम पृष्ठों पर ये शे’र उद्धृत करते हुए याद दिलाते हैं कि हम पूर्णता की मरीचिका के पीछे कितना भी भागें, आख़िर में सब कुछ अधूरा ही रह जाना है। कुदरत ने हमें ऐसा ही बनाया है। इसी आधार पर वो लेखक को, यानी ख़ुद को भी अधूरी चीज़ों के देवता की संज्ञा देते हैं।

उनके व्यक्तिगत अनुभव उनके सृजन की नींव हैं जिस पर वो अपने छोटे-बड़े साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक निष्कर्षों की एक ऐक्सेसिबल इमारत तैयार करते हैं। गीत गंभीर लेखन के साथ-साथ युवा और आम पाठकों के बीच भी इतनी लोकप्रियता शायद इसीलिए अर्जित कर पाए हैं क्योंकि वो अपने लिखे में ‘पठनीयता’ को केंद्रीय महत्त्व देते हैं।

‘अधूरी चीज़ों का देवता’ (Adhuri Cheezon Ka Devta) उनके निबन्ध, टीपों और डायरी नोट्स का एक सरस संग्रह है। संपादक और छायाकार अनुराग वत्स के कैमरे से ली गई आकर्षक आवरण फ़ोटो से सुसज्जित यह संग्रह अनुराग के ही रुख़ पब्लिकेशन्स से 2021 में प्रकाशित हुआ था। इससे पहले 2018 में गीत का ऐसा ही एक सुंदर गद्य-संग्रह ‘टेबल लैम्प’ भी ख़ासा चर्चित रहा था।

प्रस्तुत किताब के पहले निबन्ध ‘बिल्लियाँ’ के उनके अनुभव पालतू जानवरों से लगाव का चिर-परिचित माहौल साझा करते हैं जो हमारे मध्यवर्गीय घरों या उनके पड़ोस में सतत उपस्थित है :
“हम कितने भी दुखी हों, कितने भी निराश, बिल्लियों को खेलता देखना दुनिया का सबसे बड़ा सुख था।”

‘मेरा दोस्त भुजंग’ मराठी कवि भुजंग मेश्राम का रेखाचित्र खींचते हुए लेखक की उनके साथ अंतरंग मित्रता का सरस संस्मरण भी बन पड़ता है। भुजंग मराठी दलित-आदिवासी कविता के प्रमुख स्तंभ थे और मराठी दलित साहित्य के लैंडमार्क संकलन ‘पाॅइज़न्ड ब्रेड’ का हिस्सा भी रहे थे।

‘कारवी के फूल’ फूलों पर लिखा एक सुंदर गद्य है। अपने पूरे जीवन में एक ही बार पुष्पित होने वाले कारवी के पौधे की विलक्षणता के बहाने यहाँ रक़म-रक़म के मनोहर फूलों और पौधों की महमह झाँकी दिखाई गई है।

‘साँची में बुद्ध’ निबन्ध साँची के इतिहास और संस्कृति से जुड़े कई हिस्सों को रोशन करते हुए बुद्ध और बौद्ध धर्म के विकास के अंतर्विरोधों और विशिष्टताओं पर भी कुछ सुचिंतित विचार और कथाएँ साझा करता है। एक साहित्यकार जब इतिहास से वार्तालाप करता है तो इतिहास की जटिलताएं कितनी सहजता से संप्रेषित हो सकती है, यह गद्य इसका उदाहरण है। यह ज़रूर है कि यहाँ गीत के कुछेक निष्कर्ष जल्दबाज़ी में दिये गए लगते हैं जिनसे बचा जा सकता था।

‘मैं कालिदास का मेघ हूँ’ एक लालित्यपूर्ण गद्य है। यह कालिदास की अमर कृति ‘मेघदूत’ के मेघ के मोनोलॉग के रूप में लिखा गया है। हमारे महाकाव्यों और पुराणों में बादलों की दुनिया कितनी रंगबिरंगी और दिलचस्प है इसका उम्दा परिचय यहाँ मिलता है।

‘लैला की उंगलियाँ’ और ‘प्रेम हमें स्वतंत्र करता है… ‘ – ये दोनों ख़ूबसूरत निबन्ध हमारे जीवन में स्मृति की केंद्रीय और निर्णायक स्थिति को पहचानते हुए क्रमशः ‘बुद्ध की सम्यक स्मृति’ और ‘प्रेम के स्मृति पर संतुलनकारी प्रभाव’ की सार्थकता को स्थापित करते हैं।

‘दिल के क़िस्से कहाँ नहीं होते’ निबन्ध नैसर्गिक प्रतिभा बनाम अर्जित ज्ञान की बहस पर एक संक्षिप्त लेकिन सारगर्भित गद्य है। ‘नींद, मृत्यु का दैनिक अभ्यास है’ निबन्ध मृत्यु की अनिवार्य और भीषण उपस्थिति पर विश्व भर में चलने वाली बहसों और मान्यताओं को छूते हुए कुछ मौलिक स्थापनाएं सामने रखता है।

‘आप किसके लिए लिखते हैं?’ शीर्षक निबन्ध साहित्य के चिरंतन प्रश्न से जूझता है और यहाँ गीत की ईमानदारी मेरा मन जीत लेती है। किसी शॉर्ट टर्म बौद्धिक भुलावे का सहारा न लेकर यहाँ वे सतत जिज्ञासा और जिरह का सहारा लेते हैं। इससे इस पुराने लेकिन हमेशा प्रासंगिक प्रश्न से जुड़ी कई और परतें हमारे सामने चरमराने लगती हैं। इस अध्याय में सत्यनारायण भगवान की लोक प्रचलित कथा का उदाहरण मुझे ख़ास तौर पर नये अर्थ खोलता हुआ दिखा।

मैं अक्सर जिस आत्मिक पाठकीय सुख का ज़िक्र करता हूँ उसका भी सबब इस किताब में मौजूद है। कई पंक्तियों में साहित्य को किसी त्योहार या उत्सव की तरह जिया गया है : ‘हमारे बीच विष्णु खरे की कविताएं किसी सेलेब्रेशन की तरह पढ़ी जाती थीं।’

मेरी समझ में साहित्य की एक ख़ासियत यह भी है कि वह हमें आसपास की दुनिया के प्रति अधिक जिज्ञासु और संवेदनशील बनाने की संभावनाओं से भरा होता है। गीत यह काम बखूबी करते हैं :
‘फूलों के बारे में हम कितना कम जानते हैं। गिनती के फूलों को छोड़ दें, तो बाक़ी कई फूलों को हम उनके नाम से नहीं पहचान पाते।’

गीत के गद्य और पद्य दोनों से निकाली गई सूक्तियों को हिन्दी सोशल मीडिया में पोस्टर्स के ज़रिये कल्ट लोकप्रियता मिल चुकी है। इस किताब में भी ऐसी सुंदर और प्रभावशाली सूक्तियाँ लगातार मिलती हैं :

  • देवता की आराधना करें या न करें, लेकिन उसके चरणों में पड़े फूल की आराधना ज़रूर करनी चाहिए।
  • किसी भाषा और संस्कृति में मृत्यु को लेकर समझ जितनी गहरी होगी, उसमें कविता भी उतनी ही विशिष्ट लिखी जाएगी।
  • सारी उम्मीद अंततः प्यार पर आकर टिक जाती है।
  • बिना लापता हुए अपना पता कहाँ मिलता है!
  • हम सब अपना-अपना ईश्वर ख़ुद बनाते हैं।

    और भी बहुत सारी।

मिथक अक्सर ही गीत के रचना-संसार में अपनी रचनात्मक उपस्थिति दर्ज कराते हैं। ग्रीक, भारतीय, अरब आदि परंपराओं के मिथक जब-तब उनके गद्य में आवाजाही करते रहते हैं। एक अध्याय में गीत याद भी दिलाते हैं कि मिथकों को राममनोहर लोहिया ने ‘मनुष्य की कलात्मक कल्पनाएँ’ कहा है।

जैसे एक कुशल संगीतकार अपने कंपोज़िशन्स को अधिकतम प्रभावशाली बनाने के लिए नए पुराने, लोक या शास्त्रीय – सब तरह के वाद्यों का समुचित उपयोग करता है वैसे ही गीत भी अपने गद्य में फ़िल्मों, साहित्य की विधाओं, अकादमिक विषयों और मिथक – सबको वक़्त ज़रूरत निचोड़ते चलते हैं।

उनका गद्य ‘गाढ़ी नींद के मीठे सपने की तरह’ खिलता है। कवि केदारनाथ सिंह ने अज्ञेय के बारे में कभी कहा था कि अज्ञेय जब कविता करने जाते हैं तो सारे बंधन टूट जाते हैं। मेरी समझ से गीत चतुर्वेदी के गद्य के बारे में भी यही बात कही जा सकती है। किसी भी बंधन या सीमा से मुक्त होकर गीत अपने चयनित विषयों पर निर्बाध क़लम चलाते हैं और इस प्रक्रिया में पठनीयता और सहज बोधगम्यता को कहीं भी कम नहीं होने देते।

शायद किसी भी साहित्यकार के लिए इस संयोग को प्राप्त करना उसकी रचनाधर्मिता की सबसे बड़ी सफलता है और इस अर्थ में गीत हमारे समय के सबसे सफल साहित्यकारों में से एक हैं।

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