पुस्तक समीक्षा – ‘अपेक्षाओं के बियाबान’ : रिश्तों की उलझनें सुलझाती कहानियां

निधि अग्रवाल का कहानी संग्रह

वंदना बाजपेयी

डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने अपने पहले कहानी संग्रह ‘अपेक्षाओं के बियाबान’ से साहित्य के क्षेत्र में एक जोरदार और महत्वपूर्ण दस्तक दी है। उनके कथानक नए हैं, प्रस्तुतीकरण और शिल्प प्रभावशाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कहानियाँ हमारे मन के उस हिस्से पर सीधे दस्तक देती हैं जो हमारे रिश्तों से जुड़ा है। जिन्हें हम सहेजना चाहते हैं बनाए रखना चाहते हैं पर कई बार उन्हें छोड़ भी देना पड़ता है। और तो और कभी- कभी किसी अच्छे रिश्ते की कल्पना भी हमारे जीने कि वजह बन जाती है।

महत्वपूर्ण बात ये है कि लेखिका रिश्तों की गहन पड़ताल करती हैं और सूत्र निकाल लाती हैं| इस संग्रह कि कहानियाँ… हमारे आपके रिश्तों की कहानियाँ है पर उनके नीचे गहरे.. बहुत गहरे एक दर्शन चल रहा है। जैसे किसी गहरे समुद्र में किसी सीप के अंदर कोई मोती छिपा हुआ है। गोता लगाने पर आनंद तो बढ़ जाएगा, रिश्तों के कई पहलू समझ में आएंगे। अगर आप युवा है तो अपने कई उनसुलझे रिश्तों के उत्तर भी मिलेंगे।

कवर पर लिखे डॉ. निधि के शब्द उनकी संवेदनशीलता और भावनाओं पर पकड़ को दर्शाते हैं..

“दुखों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता। किसान फसल लुटने पर रोता है।प्रेमी विश्वास खो देने पर।दुख की तीव्रता नापने का कोई यंत्र उपलबद्ध हो तो रीडिंग दोनों की एक दिखाएगा। किसान की आत्महत्या और और प्रेमी की आत्महत्या पर समाज कि प्रतिक्रियाएँ भले ही भिन्न हों, पर जीवन और मृत्यु के बीच किसी एक को चुनने कि छटपटाहट एक जैसी होती है। पीछे छोड़ दिए गए अपनों के आंसुओं का रंग भी एक समान होता है।”

संग्रह की पहली कहानी ‘अपेक्षाओं के बियाबान’ जिसके नाम पर संग्रह है, पत्र द्वारा संवाद की शैली में लिखी गई है। यह संवाद पाखी और उसके पिता तुल्य दादा के बीच है। संवाद के जरिए सुखी दाम्पत्य जीवन को समझने की कोशिश की गई है। एक तरफ दादा हैं जो अपनी कोमा मेंगई पत्नी से भी प्रेम करते हैं, संवाद करते हैं। शब्दों की दरकार नहीं है उन्हें, क्योंकि उन्होंने सदा एक दूसरे के मौन को सुना है। वहीं पाखी है जो अपने पति से संवाद के लिए तरसती है, उसका पति जिंदगी की दौड़ में आगे -आगे भाग रहा है और वो अपेक्षाओं के बियाबान में। अपेक्षाएँ जो पूरी नहीं होती और उसे अवसाद में घेर कर अस्पताल तक पहुंचा देती हैं। एक छटपटाहट है, बेचैनी है .. जैसे आगे भागते हुए साथी से पीछे और पीछे छूटती जा रही है .. कोई गलत नहीं है, दोनों की प्राथमिकताएँ, वो भी अपनी ही गृहस्थी के लिए टकरा रही है।क्या है कोई इसका हल?

“दाम्पत्य जल में घुली शक्कर है .. पर मिठास विद्धमान होती है। पर बिना चखे अनुभूति कैसे हो? चखना जरूरी है। इसके लिए एक दूसरे को दिया जाने वाला समय जरूरी है। भागने और रुकने का संतुलन…”

‘यमुना बैक की मेट्रो’ एक अद्भुत कहानी है। हम भारतीयों पर आरोप रहता है कि हम घूरते बहुत हैं। कभी आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कहीं पार्क में, पब्लिक प्लेस पर या फिर मेट्रो में ही हम लोगों को देखकर उनके बारे में, उनकी जिंदगी के बारे में यूं ही ख्याल लगाते हैं कि कैसे है वो… इसे अमूमन हम लोग टाइम पास का नाम देते हैं। इसी टाइम पास की थीम पर निधि एक बेहतरीन कहानी रचती हैं। जहाँ वो पात्रों के अंतर्मन में झाँकती हैं, किसी मनोवैज्ञानिक की तरह उनके मन की परते छीलती चलती है। महज आब्ज़र्वैशन के आधार पर लिखी गई ये कहानी पाठक को संवेदना के उच्च स्तर तक ले जाती है। कहानी कहीं भी लाउड नहीं होती, कुछ भी कहती नहीं पर पाठक की आँखें भिगो देती है।

जैसे एक टीचर है जो कौशांबी से चढ़ती है। हमेशा मेट्रो में फल खाती है। शायद काम की जल्दी में घर में समय नहीं मिलता। फिर भी चेहरे पर स्थायी थकान है। एक साँवली सी लड़की जो कभी मुसकुराती नहीं। पिछले दो महीनों में बस एक बार उसे किसी मेसेज का रिप्लाय करते हुए मुसकुराते देखा है। तनिष्क में काम करने वाली लड़की जो कभी जेवर खरीद नहीं पाती… अनेकों पात्र, चढ़ते उतरते… अनजान अजनबी, जिनके दुख हमें छू जा हैं। यही संवेदनशीलता तो हमें मानव बनाती है। तभी तो ऑब्जर्वर सलाह (मन में) देता चलता है। एक एक सलाह जीवन का एक सूत्र है। जैसे…

“उतना ही भागो कि उम्र बीतने पर अपने पैरों पर चलने कि शक्ति बनी रहे। उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता।”

“अभी पंखों को बाँधे रखने पर भी पंखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है। वो अनंत आकाश की उन्मुक्त उड़ान से विमुख क्यों रहे।”

‘फैन्टम लिम्ब’ एक मेडिकल टर्म है, जिसमें पैर/हाथ या कोई हिस्सा काट देने के बाद भी कई बार उस हिस्से में दर्द होता है जो अब नहीं है। ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है। कहानी उसके साथ रिश्तों में साम्य बनाते हुए उन सभी रिश्तों को फैन्टम लिम्ब की संज्ञा देती है जो खत्म हो चुके हैं… पर हम कहीं ना कहीं उससे लिंक बनाए हुए उस पीड़ा को ढो रहे हैं। जो कट चुका है पर जद्दोजहद इस बात की है कि हम उसे कटने को, अलग होने को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए ढो रहे हैं। कहानी को सुखांत किया है। सुखांत ना होती तब भी अपने उद्देश्य में सफल है। क्योंकी आगे बढ़ जाना ही पर्याप्त है।

‘परजीवी’ स्त्रियों के मन की तहों को खोलती एक मीठी सी मार्मिक कहानी है। मीठी और मार्मिक ये दो विरोधाभासी शब्द जानबूझ कर चुने। कहानी की शुरुआत माँ कि मृत्यु पर भारत आती लड़की के माँ की स्मृतियों में लौटने से शुरू होती है पर एक स्त्री के मन की गांठों को खोलती है .. उसके भाव जगत की पड़ताल करती है और कुछ खास रिश्तों की कोमलता वो किस तरह से सँजोती है उसकी भी।

‘दूसरी पायदान’ कहानी संग्रह की सबसे बड़ी (करीब 80 पेज) और एक सशक्त कहानी है। निधि चाहती तो इस पर उपन्यास भी लिख सकती थी पर उन्होंने कहानी ही बने रहने देना चुना। ये उनका चयन है ..पात्र अपनी यात्रा तय करते हैं। अब ये लेखक का निर्णय होता है कि उसे खींच कर उपन्यास कर दे या वहीं पर छोड़ दे। खैर जो भी हो ये एक अच्छी कहानी है। हमारे रिश्तों में बहुत सारी उलझने अपेक्षाएँ केवल इसलिए शुरू हो जाती हैं कि हम उन्हें सही पायदान पर नहीं रख पाते। प्राइऑरटी लिस्ट रिश्तों में भी होनी चाहिए। जिसे हम ने अपने दिल में पहले पायदान पर बिठा रखा है उसकी प्रथमिकताओं की सूची में हमारा दसवां स्थान है तो हम हमेशा अपेक्षाओं के बियाबान में असंतुष्टि के साथ दौड़ते रहेंगे। रिश्ता चाहे सास -बहु, पिता पुत्री का पति -पत्नी का या मित्रता का। अक्सर हम खुशी खुशी पायदान चढ़ तो जाते हैं पर उतरना नहीं सीख पाते। अपने पायदान पर बने रहने की जिद दुखों का मूल कारण है। एक माँ जो अपने बेटे के लिए पहली पायदान पर है उसके लिए जरूरी है कि बहू आने पर स्वयं एक पायदान उतर जाए.. और वो स्थान बेटे की जिंदगी में बहु के लिए खाली कर दे।

ये एक ऐसा नियम है जो हर रिश्ते में चलता है| कैरियर और परिवार के बीच में चलता है।पति की नौकरी और अपनी गृहस्थी के बीच में चलता है। बस जरूरत है समझने की। कहानी के मुख्य पात्र हैं अरु उसके पति विभोर और कलाकार, चित्रकार कौस्तुभ सर। अरु और विभोर की लव मैरिज है, जिसे उनके परिवारों ने मुश्किल से स्वीकार किया है। कौस्तुभ सर की एक बैक स्टोरी है, तो अरु के मन में कौस्तुभ सर के प्रति करुणा। हमारी जिंदगी की तरह ही सबके अपनी-अपनी जगह सही होते हुए भी कहानी उलझती है और मानसिक जिंदगी भी। लेखिका बहुत ही खूबसूरती से इन धागों को सुलझाती हैं। एक सुखांत कहानी जो अपने तेज प्रवाह के साथ पहले तो बहाए लिए जाती है और अततः पाठक के मन पर गहरी छाप छोड़ती है।

“सदा देखा है, जो लोग बुरे समय में आपके कंधे पर सर रख कर रोते हैं, वही अच्छे समय में किन्ही और के कंधे पर हाथ रख कर ही खिलखिलाते हैं।कुछ रिश्ते दुख के साये में ही पनपते हैं और सुख के आलोक में आते ही मुरझा जाते हैं।”

“यह भी समझो कि दुख और सुख से सामंजस्य बनाने का सबका अपना दृष्टिकोण है। कुछ लोग दुखद स्मृतियों को सदा सामने रखते हैं, जो सुख में भी बहकने ना दे। कुछ उनसे यथासंभव दूरी बना बसंत को भरपूर जीना चाहते हैं।”

‘फलक तक मेरे साथ चल’ संग्रह की आखिरी कहानी है| ये एक अनाथ लड़की की कहानी है जो जीवन की विपरीत परिस्थितियों में प्रेम की एक कल्पना एक आभास के साथ जूझती है। एक मार्मिक कहानी है। कहानी का शिल्प थोड़ा अलग है, जो प्रभावित करता है।

‘मोहर’ मीठी सी प्रेम कहानी है। ‘अति-रिक्त’ डाउन सिंड्रोम से ग्रस्त बच्चे की माँ की कहानी है। ‘दंड निर्धारण’ जन्म-जन्मांतर का आध्यात्मिक टच लिए हुए है। ‘आईना कभी झूठ नहीं बोलता’ ऐसिड अटैक विक्टिम की कहानी है। ‘तितली और तिलचट्टा’ एक जटिल कहानी है जो काफ्का की लोकप्रिय कहानी ‘मेटामार्फोसिस’ से की याद दिलाती है। ‘मेटामार्फोसिस’ में कहानी का मुख्य पात्र ग्रेगर एक सुबह अचानक तिलचट्टे में बदल जाता है .. जब कोई इंसान अनुपयोगी हो जाता है तो उसका क्या हश्र होता है। हमारे रिश्ते हमारे उपयोगी या अनुपयोगी होने से कितने प्रभावित होते हैं। इस कहानी में इसे समझने के लिए तिलचट्टा और तितली का बिम्ब लिया है। मन तितली हो जाना चाहता है पर तन तिलचट्टे में बदल रहा है।

“मैक्स से पूछना चाहती हूँ, काफ्का ने तितलियों के बारे में क्यों नहीं लिखा कुछ अंश डायरी में अप्रकाशित छूटे या मेरे घर के शीशे ही झूठे हैं। मैं शीशे के सामने खड़ी होती हूँ तो अनिकेत को शीशे में तिलचट्टा दिखता है और मुझे उड़ने को आतुर तितली।”

कहानी अच्छी है। हम इसमें लेखिका के एक अलग रूप को देखते हैं एक अलग शिल्प के साथ। बौद्धिक कहानियों को पसंद करने वाला खास पाठक वर्ग इस पसंद करेगा।

अंत में यही कहना चाहूँगी कि इन कहानियों के केंद्र बिन्दु में हमारे रिश्ते हैं। फिर भी हर कहानी अलग है। अलग मसला उठाती है। अलग ढंग से देखती है और समाधान भी देती है। यहाँ निधि मात्र एक कथाकार ना रह कर एक संवेदनशील हृदय के साथ रिश्तों की समस्याओं से जूझते मन को एक संदेश भी देती हैं। लगभग सारी कहानियाँ शहर, वहाँ की आपाधापी की जिंदगी और युवाओं पर है। आज का युवा उलझा हुआ है .. कैरियर में रिश्तों में, कुछ बचता नजर नहीं आता। सारी पीड़ा, सारी संभावना मन में है।सब कुछ गदंगड्ड, गुत्थमगुत्था से जूझता मन .. जिसे बांटने वाला कोई नहीं। ये कहानियाँ उस मन को बाँट रही हैं, सहारा दे रही हैं, दिशा दे रही है।

कहानियों के कथानक भाषा, प्रवाह और शिल्प ताजगी भरा है जो प्रभावित करता है। अधिकतर कहानियों के स्त्री पात्र थकने हारने के बाद बैठ नहीं जाते, टकराते है संघर्ष करते हैं और निकलते हैं। पुरुष हमेशा एक क्रूर छवि के साथ नहीं आया है, कहीं वो पिता है तो कहीं प्रेम करने वाला पति भी तो कहीं ऐसा भी जिससे बचना जरूरी है। इसलिए कहानियाँ जीवन का ही हिस्सा सी लगती है। कहनियों की सबसे खास बात वो पंचलाइन्स हैं जिसे निधि जगह जगह इस्तेमाल करती है। जीवन को समझने में इनका कोट्स के रूप में इस्तेमाल किया सकता है। बेहतर हो इन्हें अंडर लाइन कर लिया जाए।

निधि का ये पहला कहानी संग्रह है। जिसमें वो जिंदगी के विशाल कैनवास पर अपनी गहन दृष्टि से पात्रों की मनोदशा के जिस तरह से चित्र उकेरती है उससे साहित्य कि पहली पायदान पर अपना विशेष असर छोड़ती हैं। उनसे भविष्य में और बेहतर की आशा और बढ़ जाती है। उन्हें लेखकीय भविष्य के लिए बहुत बहुत शुभकामनाएँ। जिन्हें रिश्तों की गहन पड़ताल करती कहानियाँ पसंद हैं उनके लिए ये संग्रह मुफीद है।

अपेक्षाओं के बियाबान (कहानी संग्रह), लेखिकाः डॉ.निधि अग्रवाल, प्रकाशक -बोधि प्रकाशन, पेजः 220, मूल्यः 250

वंदना वाजपेयी

वंदना बाजपेयी अटूट बंधन वेबसाइट की संस्थापक और प्रधान संपादक हैं। इससे पहले आप दैनिक समाचारपत्र ‘सच का हौसला’ में फीचर एडिटर तथा त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका गाथान्तर में सह -संपादक रही हैं। अपनी वेबसाइट अटूट बंधन के माध्यम से आप साहित्य के साथ स्वस्थ समाज की स्थापना पर भी जोर देती हैं। देश के प्रतिष्ठित समाचारपत्रों, पत्रिकाओ, वेब पत्रिकाओं में वंदना जी की कहानियां, कवितायें, लेख, व्यंग आदि प्रकाशित हो चुके हैं। कुछ कहानियों कविताओं का नेपाली तथा पंजाबी में अनुवाद हो चुका है।

 

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