दिनेश श्रीनेत
बाहरी दुनिया की तरह हिंदी की कविता में भी स्त्री ने बीते कुछ वर्षों में अपना स्पेस तलाशा है। यूँ कहें कि कविता में स्त्री की मौजूदगी अब ज्यादा स्पष्ट और ज्यादा मुखर है। उल्लेखनीय यह है कि पुरुष रचनाकार भी स्त्रियों के इस स्पेस और उनकी मौजूदगी को पहचान रहे हैं और अपनी कविताओं में उसकी पड़ताल कर रहे हैं। विवेक चतुर्वेदी की कविताएं भी हमारे समय में स्त्री की मौजूदगी और हस्तक्षेप को बहुत ही सहज तरीके से रेखांकित करती चलती हैं।
उनके संग्रह ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ में कवि का यह स्वर और ज्यादा स्पष्ट होकर सामने आता है। ‘शोरूम में काम करने वाली लड़की’, ‘औरत की बात’, ‘मां’ तथा ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ जैसी कविताएं हमारे आसपास के जीवन में मौजूद स्त्रियों की सदैव धुमिल लगने वाली या ‘आउट ऑफ फोकस’ मौजूदगी को अचानक थोड़ा गहरा देती हैं। यही इन कविताओं की सुंदरता है। यहां कवि के भीतर खुद को स्त्री विमर्श से जोड़ने या स्त्री मुक्ति का पैरोकार कहलाने की हड़बड़ी नहीं है। ‘डायरेक्ट’ कोई बड़ी बात कहे बिना ये कविताएं धीरे-धीरे आपके भीतर एक जीवन दृष्टि का निर्माण करती चलती हैं। जैसे कि ‘स्त्रियां घर लौटती हैं’ कविता में वे लिखते हैं-
स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है,
पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।
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कवि की यह दृष्टि ही अहम बन जाती है। यह अनायास ही आपके आसपास स्त्री की जीवंत और उर्जामयी उपस्थिति, उसके शोक व राग के प्रति आपको संवेदनशील बनाती है। यहां कवि का स्वर किसी अन्य के लिए नहीं बल्कि स्वयं जीवन को समझने और जीवन दृष्टि के विस्तार समेटे हुए है। केदारनाथ सिंह के बाद आई पीढ़ी जो कहीं न कहीं उनके काव्य मुहावरे के प्रभाव में उनकी शैली का अनुसरण कर रही थी, केदारनाथ सिंह के कविता में जहां जीवन के प्रति आस्था है, वहां पर उसे रूमान से जोड़ने की प्रवृति दिखती है। इसने कहीं न कहीं काव्य के मुहावरे को रूढ़ किया है। विवेक चतुर्वेदी की विशिष्टता है कि वे आस्था का स्वर बनाए रखने के बावजूद अपनी कविता को अनावश्यक रूप से रूमानी होने से बचाते हैं। उनकी एक कविता टाइपिस्ट की अंतिम पंक्तियों में इसे बखूबी देखा जा सकता है –
मैंने ‘मां और दूध पीता बच्चा’ लिखाना चाहा
वो टाइप न कर सकी… भर आयीं उसकी आँखें
मैं रुका… फिर कहा लिखो… ‘औरत का हक’
उसकी उंगलियाँ लड़खड़ायीं और धुँधला गया सब
फिर वो देर तक ख़ाली स्क्रीन को घूरती रही
और कांपते हाथों से टाइप किया ‘हिम्मत’…
और उड़ने लगीं उसकी उंगलियां
सारा पेज उसकी हिम्मत से भर गया।
जीवन की साधारणता का यह गान उनकी उन कविताओं में भी देखा जा सकता है जहां पर स्त्री सीधे उपस्थित नहीं है। अरुण कमल विवेक की कविताओं के बारे में कहते हैं, “विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में सघन स्मृतियाँ हैं, भोगे हुए अनुभव हैं और विराट कल्पना है; इस प्रकार वे भूत, वर्तमान और भविष्य का समाहार कर पाते हैं, और यहीं से जीवन के वैभव से सम्पन्न समवेत गान की कविता उत्पन्न होती है, कविता एक वृन्दगान है पर उसे एक ही व्यक्ति गाता है।” इस संदर्भ में एक छोटी कविता ‘हरी मिर्च और नमक’ को यहां संपूर्ण रूप में पढ़ा और देखा जा सकता है –
न रुला पाता शायद
लथपथ ख़ून से
सड़क पर पड़ा
वो दोपहिया सवार
पर ढनग कर खुले टिफिन से
रोटियों के साथ
झाँक आयीं थीं
दो हरी मिर्च और
अधबँधी पुड़िया में नमक।
उनकी कविताओं में मां की उपस्थिति भी अहम है। ‘मां’, ‘मां को खत’, ‘प्रार्थना की साँझ’ कुछ ऐसी ही कविताएं हैं, जहां मां की मौजूदगी में स्त्री की दृढ़ गरिमामयी उपस्थिति रेखांकित होती है। इसी तरह से विवेक की प्रेम कविताएं हैं। इनमें सिर्फ प्रेम नहीं प्रेम के बहाने जीवन के राग और उत्सव की मौजूदगी है। ‘बसंत लौटता है’ एक ऐसी ही खूबसूरत कविता है। कहां हो तुम में अषाढ़ की पहली बारिश के बहाने प्रस्फुटित हो रही प्रेमिल स्मृतियां और पुकार है, जो यह बताता है कि प्रेम उतना ही प्राकृतिक और अनिवार्य है जैसे की सृष्टि की तमाम हलचलें। प्रकृति और जीवन की साधारण वस्तुएं विवेक चतुर्वेदी की कविताओं में खूब आती हैं। टाइपराइटर, धानी कुर्ता, लालटेन, लाल रुमाल आदि तमाम वस्तुएं कविता में उसी सहजता से उपस्थित होती हैं जैसे पीपल, साँझ, नर्मदा नदी, अषाढ़ का बादल, गौरैया, धूप आदि प्रकृति की छवियां आती है।
अंत में अरुण कमल के ही शब्दों में, “वे बुन्देली के, अवधी के और लोक बोलियों के शब्द ज्यों-के-त्यों उठा रहे हैं यहाँ पंक्ति की जगह पाँत है, मसहरी है, कबेलू है, बिरवा है, सितोलिया है, जीमना है। वे भाषा के नये स्वर में बरत रहे हैं, रच रहे हैं। हालाँकि अभी उन्हें अपनी एक निज भाषा खोजनी है और वे उस यात्रा में हैं। वे लिखने की ऐसी प्रविधि का प्रयोग करने में सक्षम कवि हैं, जिसमें अधिक-से-अधिक को कम-से-कम में कहा जाता है। यह कविता द्रष्टव्य है “एक गन्ध ऐसी होती है/ जो अन्तस को छू लेती है/ गुलाब-सी नहीं चन्दन-सी नहीं/ ये तो हैं बहुत अभिजात/ मीठी नीम-सी होती है/ तुम ऐसी ही एक गन्ध हो।”