शिरीष खरे की किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ : हाशिये के हिंदुस्तान की ख़बरें

शिरीष खरे- एक देश बारह दुनिया

शुभनीक कौशिक

दो-ढाई दशक पहले पत्रकार पी. साईनाथ ने अपनी चर्चित किताब ‘एवरीवन लव्ज ए गुड ड्राट’ (हिन्दी में ‘तीसरी फसल’) में हिंदुस्तान के देहातों, कस्बों की एक ऐसी तस्वीर पेश की थी, जो अक्सर प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा अनदेखी कर दी जाती हैं। साईनाथ की वह किताब पढ़ते हुए आपको इस उक्ति का आशय और स्पष्टता से समझ आता है कि ‘सच्चाई बहुधा गल्प से भी ज्यादा आश्चर्यजनक होती है।’ अभी दो साल पहले प्रकाशित हुई एक ऐसी ही किताब ‘देस गांव’ में अभिषेक श्रीवास्तव ने हिंदुस्तान के लोगों और आंदोलनों की एक जिंदा तस्वीर पेश की थी।

पत्रकार शिरीष खरे की हालिया किताब ‘एक देश बारह दुनिया’ प्रतिबद्ध पत्रकारिता की इस कड़ी को आगे बढ़ाने वाली किताब है। शिरीष खरे की इस किताब में हिंदुस्तान के उन लोगों, समुदायों को जगह मिली है, जिन्हें अमूमन मीडिया द्वारा उपेक्षित कर दिया जाता है। यह किताब पिछले एक दशक में लिखी गई बारह रिपोर्ताजों का संकलन भर नहीं है, बल्कि हाशिये के हिंदुस्तान की बारह मुकम्मल तस्वीरें हैं, जिनसे आप जीडीपी, आर्थिक वृद्धि और विकास की लुभावनी और चमकदार खबरों को तौल सकते हैं। इन खबरों में किसान हैं, आदिवासी और खेत मज़दूर हैं, शहरों में ‘अर्बन प्लानिंग’ के नाम पर रोज-ब-रोज विस्थापित होते लोग हैं, वेश्याएं हैं, कुपोषण और भुखमरी के शिकार बच्चे हैं, नक्सल प्रभावित इलाके हैं।

इस किताब से उभर कर आती इन विविध तस्वीरों के बाबत शिरीष खरे यह सवाल उठाते हैं कि ‘‘दरअसल, यह एक-दूसरे से बहुत दूर की दुनियाओं में रहने वाले वंचितों के दुःख, तकलीफ़, संघर्ष, प्यार, उनकी खुशियों और उम्मीदों का अलग-अलग यथार्थ है जिसे देख ताज्जुब होता है कि क्या यह एक ही देश है!’’

बांध हों, वन कानून हों या फिर बाघ के लिए आरक्षित क्षेत्र हों- इन सभी ने ‘विकास’ और ‘संरक्षण’ के नाम पर किस तरह स्थानीय लोगों को उनके घर-बार, जमीन और गांवों से विस्थापित कर दिया, इसकी कड़वी कहानी शिरीष के ये रिपोर्ताज कहते हैं।

ये कहानियां उन सरकारी नीतियों की पोल खोलती हैं, जिनका उद्देश्य जंगल के असली मालिकों को मजजदूर बनाना और वन विभाग के अधिकारियों और ठेकेदारों को जंगल का मालिक बना देना रहा है। महाराष्ट्र के ‘मेलघाट टाइगर रिजर्व एरिया’ के एक ग्रामीण तुकाराम सनवरे का यह बयान उस जंगल नीति के दोहरे चरित्र को उघाड़ कर रख देता है, ‘‘1974 के बाद से जब अफसर फ़ाइल लेकर इधर-उधर घूमते तो हमने सोचा नहीं था कि एक दिन वे हमें जंगलों से इस तरह अलग कर देंगे। वे जीपों से आते और कहते कि तुम्हें घर और खेती के लिए जमीन दी जाएगी। हमें अचरज होता कि जो जमीन हमारी ही है, उसे वे क्यों देंगे!’’

इन रिपोर्टों में तिरमली जैसी घुमंतू जनजातियां हैं, सैय्यद मदारी हैं, कभी ‘अपराधी’ करार दे दी गई पारधी जनजाति है- उन पर मंडराता आजीविका का संकट है, अपना अस्तित्व बचाने भर की जद्दोजहद है।

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अगर आपने नर्मदा परिक्रमा पर आधारित किताबें पढ़ी हों, नर्मदा को ‘सौंदर्य की नदी’ के रूप में जाना हो तो शिरीष की यह किताब पढ़ते हुए आपको नर्मदा घाटी का एक और बदरंग चेहरा देखने को मिलेगा। जहां बांध से विस्थापित और पुनर्वास की बाट जोहते लोग हैं, परमाणु बिजलीघरों के ठीक बगल में रहते हुए आसन्न संकट से घिरे ग्रामीण हैं और अवैध खनन, जंगलों की अंधाधुंध कटान और तापीय विद्युत संयंत्रों से निकलती राख से दम तोड़ती नर्मदा और उसकी दर्जनों सहायक नदियां हैं।

यह किताब वाल्मीक निकालजे, सतीश गायकवाड़, बजरंग टाटे, माया शिंदे जैसे उन जिंदादिल लोगों की भी कहानी है, जिन्होंने सरकारी दमन, पुलिसिया प्रताड़ना के बावजूद भी प्रतिरोध की मशाल उठाए रखी है।

‘एक देश बारह दुनिया’ हाल ही में ‘राजपाल प्रकाशन’ से प्रकाशित पुस्तक भारत के ग्लोब की तरह है, जिसके अंदर बारह दुनिया के जीवंत रिपोर्ताज हैं, ये दुनिया रंगीन दुनिया नहीं है, बल्कि त्रासद दुनिया है, जिनमें मुख्यधारा से कटी हुई भूभागों के शहरी चकाचौंध से दूर उम्मीदों के टूटने का पीड़ादायक वर्णन है। फणीश्वरनाथ रेणु के द्वारा ‘मैला आंचल’ की भूमिका में लिखा गया यह कथन इस पुस्तक के लिए भी पूर्णतः सही प्रतीत होता है, ‘‘इसमें फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाब भी है और कीचड़ भी है। मैं किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया।’’

यह किताब उस भारत के बारे में है जिससे हम अनजान नहीं हैं, लेकिन आंख मिलाने से बचते रहे हैं। इसमें शामिल कहानियां महाराष्ट्र, मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान के दूरदराज के इलाकों तक ही सीमित नहीं हैं, बल्कि इसमें उपेक्षा के ऐसे टापू हैं जो दिल्ली और मुंबई में तेजी से उभरते जा रहे हैं, जहां मेलघाट के लोग रोजीरोटी की खातिर मुंबई जाने के लिए मजबूर हैं और झांसी के पास किसी गांव से खदेड़ा गया आदमी दिल्ली आकर हमारे घर पर सुबह अखबार फेंक रहा है।

यह वहीं हिंदुस्तान है जो हर सुबह हमारी कारों को साफ करता है, हमारे घरों का कचरा उठाता है, वहीं हिंदुस्तान है जो राजधानी की झुग्गियों में बसता है।

पहली दुनिया है महाराष्ट्र के कोरकू आदिवासी बहुल मेलघाट पहाड़ी अंचल की, जहां कुपोषण का शिकार होकर न जाने कितनी मासूम जिंदगियां मौत की शिकार हो चुकी है।

दूसरी दुनिया है मुंबई के कमाठीपुरा की, जिसे एशिया की सबसे बड़ी देह मंडी कहा जाता है, जहां न जाने कितनी किशोरियों को छल कपट से प्रेम के जाल में फंसाकर बेच दिया जाता है।

इसके बाद लेखक आपको तिरमली बंजारों की दुनिया में ले जाता है, कहीं पारधी लोगों के जीवन की व्यथा सुनाता है, तो कभी सूरत शहर को खूबसूरत बनाने के प्रयास में वहां रहने वालों को विस्थापित करने की अमानवीय कथा बताता है। कहीं चीनी मिलों की चीनी में मिठास देने वाले मजदूरों की चीनी कड़वी है। कहीं नदियों को मैदान बनाने की तरफ अग्रसर होता हुआ विकास है, जिसके अंतर्गत मां कही जाने वाली नर्मदा नदी का भयानक रूप से दोहन किया जा रहा है कि इसका अस्तित्व ही खतरे में है।

सिस्टम के शोषण और फर्जी मुठभेड़ ने दंडकारण्य की लालिमा को और गहरी बना दिया है, जहां कथित विकास पहुंचा भी है वहां पर्यावरण की भारी कीमत अदा करके। इसी तरह, राजस्थान के अलग-अलग गांवों की यह कहानियां, देश के दूसरे गांवों से जुदा नहीं है, जहां महिलाओं को पुरुषवादी मानसिकता का सामना करना पड़ता है।

इस सदी में एक बहुत बड़ा भारत है जो 19वीं सदी से बाहर ही नहीं आ पाया है, एक और भारत है जो 20वीं सदी में अटका हुआ है और एक और छोटा भारत है जो 21वीं सदी से 22वीं सदी से जाने को तत्पर है और इस जाने की यात्रा का सामान वह देश के जल, जंगल और जमीनों का उजाड़कर तैयार कर रहा है।

यही ‘भारत’ और ‘न्यू इंडिया’ की खाई को चौड़ा कर रहा है, जिसमें कुछ करोड़ हिंदुस्तानी सौ करोड़ हिंदुस्तानियों के संसाधनों पर कब्जा करके बैठ गए हैं। दरअसल, ‘एक देश बारह दुनिया’ एक ही देश के भीतर उपनिवेश की कहानी है।

एक देश बारह दुनिया (रिपोर्ताज)
लेखकः शिरीष खरे
राजपाल एंड सन्ज
पृष्ठः 208, मूल्यः 295

समीक्षक शुभनीक कौशिक बलिया के सतीश चंद्र कॉलेज में इतिहास के अध्यापक हैं और साहित्य में इनकी गहरी रुचि है।

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