भगवंत अनमोल का उपन्यास ‘जिंदगी 50-50’ : आखिर कोई थर्ड जेंडर पर बात क्यों नहीं करता?

Bhagwant Anmol

शालिनी श्रीनेत

जिंदगी किस तरह 50-50 है, इस बात को यह किताब अनेक उदाहरणों के साथ पेश करती है। इस उपन्यास में आईटी कंपनी से लेकर खेती, जमींदारी तक का बहुत विस्तार से जिक्र किया गया है। आईटी कंपनी में जॉब करते हुए उपन्यास के नायक नायक अनमोल को सिगरेट सेंटा के गेम के दौरान एक लड़की को जानने का मौका मिलता है और धीरे-धीरे नायक को अनाया नाम की उस लड़की से प्यार हो जाता है। यहां पर 50-50 का उदाहरण यह है कि उस लड़की के चेहरे का एक हिस्सा बहुत सुंदर है तो दूसरा हिस्सा बर्थ मार्क से बदसूरत। धीरे-धीरे नायक का प्यार आगे बढ़ता है। यहां तक कि एक दूसरे की पसंद का ख्याल रखते हुए वे अपने खान-पान की आदतें भी बदल देते हैं। इस नायक का प्यार जितना ही गहरा है उतना ही अजीब भी।

शुरू में किताब पाठक को काफी उलझाती है। इस उपन्यास का नायक कभी मुंबई तो कभी बैंगलोर, कभी अनाया तो कभी आयशा, कभी हर्षा तो कभी अपने किन्नर बेटे का जिक्र करता चलता है। उपन्यास के सारे कैरेक्टर साथ-साथ चलते हैं।आधी किताब खत्म होने के बाद स्पष्ट होता है कि जिस वक्त नायक जहां जिन लोगों के साथ होता था और उस वक्त की जो परिस्थितियां होती थी, उसी तरह बताता चलता है।

अनमोल एक गांव के परिवेश का लड़का है। उसका अपना कोई मन नहीं है कि वह इंजीनियर बने पर पिता जी को शर्मा जी के सामने अपनी मूंछ ऊंची रखनी है। गांव के परिवेश का इस उपन्यास में बहुत सुंदर वर्णन है। सच में गांव के लोग जब इकट्ठा होते हैं तो कुछ इसी तरह की बातें करते हैं कि फलां का बेटा ये बना और दूबे जी का बेटा वो बन गया और थोड़ी बहुत राजनीति की बातें। इस किताब की शुरुआत होती है अनमोल के इंजीनियर बनने और गांव के लोगों यानी शर्मा जी, त्रिवेदी और गुप्ता जी की बैठकी में हो रही चर्चा से कि किसका बेटा क्या है, क्या करता है और उसे कितना दहेज मिला है।

उपन्यास में आगे उसकी पत्नी को लेबर पेन होता है और वह हड़बड़ी में अस्पताल पहुंचता है। अनमोल एक मानवता से लबालब व्यक्तित्व है। वह एक सामान्य मनुष्य की तरह सोचता है। उसकी कल्पनाओं के घोड़े आसमान पर नहीं दौड़ते जमीन पर चलते हैं। यह कहानी एक ऐसे व्यक्ति की है जो हर परिस्थिति को ठीक उसी तरह महसूस करता है, जैसा कि उस समय में हो रहा होता है। पूरे परिवार का ख्याल रखने वाला ये हीरो हमेशा सबकी परवाह करता है। खास तौर पर अपने उस सगे भाई हर्षा की जिसे समाज किन्नर कहता है। वह अपने भाई की छोटी छोटी बातों का ख्याल रखता है। उसके गेम से लेकर पहनावे तक पर कोई गलत टिप्पणी नहीं करता बल्कि उसे समझने की कोशिश करता है।

बाद में जब नायक का बेटा भी किन्नर पैदा होता है तो मां के यह पूछने पर कि क्या हुआ है बेटी पैदा हुई है या बेटा? वह सिर्फ इतना ही कहता है, “मां तुम दादी बन गई।” वह नहीं चाहता कि मां दोबारा अपने पुराने दिनों को याद करे जब हर्षा पैदा हुआ था और उस समय जो परिस्थितियां थीं। पूरी कोशिश करता है कि समाज की किसी तरह की बुरी टिप्पणी बच्चे और उसकी मां तक न पहुंचे। बच्चे के होने के उपलक्ष्य में एक आयोजन होता है तो वहां पर उपस्थित द्विवेदी जी, तिवारी जी, ठाकुर साहब, खट्टर भाई सब आए थे। शर्मा जी आते ही अनमोल की खुशियों में खलल डालने की कोशिश करते हैं और कहते हैं, “बड़े दिलदार व्यक्ति हो अनमोल भाई, ऐसे लड़के के लिए कोई फाइव स्टार में क्या घर में भी नहीं बुलाता।” खट्टर भाई साहब ने कहा, “हां, अभी अनमोल भाई पार्टी दे रहे हैं कुछ सालों बाद उनका बेटा हिजड़ों की टोली में भीख मांगता नजर आएगा। सुना इनका बेटा हिजड़ा है।” दूबे जी शर्मा जी और खट्टर साहब आपस में बातें करते हैं। वो लोग जिस तरह की बातें करते हैं हमारे समाज की सोच को दर्शाता है कि हम सोच से कितने संकीर्ण हैं।

अनमोल को शायद इंजीनियर नहीं बनना था। पर गांव के लोगों के सामने पिता जी की मूंछ ऊंची रखनी थी तो वह इंजीनियर बन गया। कई बार ऐसा होता है कि हम बनना कुछ और चाहते हैं और बन कुछ और जाते हैं। घऱ के लोग क्या सोच रहे हैं, रिश्तेदारों का क्या कहना है और गांव वाले किस तरह की बातें करते रहते हैं, यह सारी परिस्थितियां तय करती हैं कि हमें क्या बनना है। हर्ष का लड़कियों की तरह खेल खेलना और लड़कियों जैसे ड्रेस पसंद करना देखकर अनमोल परेशान नहीं होता है बल्कि यह जानने की कोशिश करता हैं कि हर्षा को और क्या क्या अच्छा लगता है। कभी-कभी हर्षा और अनमोल के बीच इस तरह की अंडरस्टैंडिंग देखकर लगता है कि अनमोल के मन में कभी क्यों नहीं आया कि उससे इन सारी बातों पर सवाल पूछे। क्या इतना सहज है एक किन्नर को समझना? अगर एक सामान्य व्यक्ति इतने ही सहज ढंग से किन्नर को समझने लगे तो उनका जीवन बहुत आसान हो जाएगा। काश हर्षा के पिता भी इसी तरह उसे समझते तो उसके जीवन की बहुत सारी उलझनें और तकलीफें कम होतीं और शायद वह अपनी पूरी जिंदगी जीता।

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इसका शीर्षक 50-50 यहां पर भी सटीक बैठता है। हर कोई बेटा-बेटी, सुंदर और बदसूरत की ही बात करता है। तीसरे की कोई बात नहीं करता। तीसरे की बात न ही कोई समझता है और न ही समझना चाहता है। क्यों करे भी भला? समाज में जिस तरह तिरस्कार है इन लोगों का, कौन चाहेगा कि उसका बच्चा तिरस्कृत हो। अनमोल अपने थर्ड जेंडर के बच्चे के होने पर विचलित नहीं होता बल्कि अपनी गलती सुधारने की बात कहता है। जो भाई के साथ हुआ वो बेटे के साथ न हो क्योंकि उनके भाई के साथ बहुत बुरा व्यवहार हुआ। समाज की लाज और उसके कहने की परवाह में पिता जी ने बहुत अत्याचार किए थे भाई पर।

पर अनमोल ने ठाना कि मैं अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर अफसर बनाऊंगा। किसी की किसी बातो का मुझ पर असर नहीं होने वाला। इसकी एक सामान्य संतान की तरह ही परवरिश करूंगा। न ही इसे घर से निकलना पड़ेगा और नही किसी के ताने सुनने पड़ेंगे। पिता जी हर्षा जिस तरह मारते पीटते थे उसकी वजह हमारा समाज और परिवेश था। हर्षा के लड़कियों जैसे खेल खेलने और उनके जैसे रहने से पिता जी नाराज होते थे। पर जब हर्षा के साथ कुछ बुरा होता था तो उसके लिए भी कोई सहानुभूति नहीं होती थी। उस पर भी हर्षा पिता जी की मार ही खाता था। हर्षा ने किस तरह पिता जी कि हाथ से निकलती हुई जमीन को बचाया यह अनमोल नहीं कर पाया जिसके बारे में बताते हुए पिता जी को बहुत खुशी होती थी साथ में मूंछें भी ऊंची रहती थीं।

इतनी ज्यादतियों के बाद भी हर्षा ने कभी से पिता से नफरत नहीं की। अनमोल ने तो खेत बचाने के लिए पैसे देने से मना कर दिया था, बहाना बना दिया और यह कहकर टाल दिया कि देखता हूँ। पर हर्षा दिन रात एक करके समाज के हिसाब से गलत काम करके भी आठ लाख रूपये इकट्ठा किया और पिता के मरने से पहले खेत बचा लिया। जिसमें उनके पिता की जान और शान अटकती थी। इसी बीच हर्षा को एचआईवी पॉजिटिव आया। आखिरकार उसने पिता के खेत की पैसे की व्यवस्था करने के बाद अपनी जान दे दी पर पिता की समाज के हिसाब से इज्जत बचाकर। अपने पिता की खूशी का पुरा खयाल रहा। बाबू जी कि किस बात से खुशी मिलती थी हर्षा भलीभांति जानती थी। पर अपने पिता की पीड़ा को उनका प्रिय बेटा होने के बावजूद अनमोल उस तरह नहीं समझ पाया जिस तरह समाज में उपेक्षित उनके किन्नर बच्चे ने समझा। अपने बुजुर्गों की जमीन खोने के दर्द ने पिता को भी बीमार बना दिया था।

किताब को पढ़ते वक्त कई बार मुझे रोना आया पर रोक लिया। लेकिन हर्षा अपने मरने से पहले जब चिट्ठी में लिखती है, “अमन तुम्हें क्या कहकर संबोधित करूं? मुझे नहीं पता। मौत के करीब उद्गिन होकर मन जिन लोगों को ढूंढ़ रहा है उनमें तुम भी हो।” इसे पढ़कर आंखों में आंसू आ गए। उपन्यास में एक मोड़ तब आता है जब अनमोल अपने बच्चे की नौकरी बचाने के लिए अनजाने में कहीं पहुंचता है तो सामने अनाया को देखकर हैरान हो जाता है। अनमोल उससे मिलने पर कहता है, “तुम्हें तो कॉफी निर्वाना पसंद नहीं थी?” वो कुछ देर चुप रही फिर उसने कहा, “मेरे बेटे और उसके पापा को यह टेस्ट बहुत पसंद है। मैं भी अब पीने लगी।” तब तक अनमोल को पता नहीं था कि उसके बेटे का पापा वही है। कुछ देर की बातचीत के बाद अनाया कहती है, “अनमोल तुम यहां से जाओ अब मेरा बेटा आ रहा है। और वह तुमसे बहुत नफरत करता है।” अपने अंदर कितने उमड़ते दुखों और भावनाओं को काबू करते हुए अनाया ने यह कहा होगा कि तुम यहां से जाओ।

उसको इस बात की पूरी संभावना नजर आ रही थी कि बात खुलने पर दोनों का परिवार बिखर जाएगा। जिस बेटे ने 28 साल अपने पिता को न देखा हो समाज से तरह तरह की बातें सुनने को मिली हों वह भला कैसे अपने पिता से मिलकर खुश होता? अनेक सवाल होते, धिक्कार होता, शायद इस डर से अनाया ने अपने बेटे से मिलने से मना कर दिया। अनाया भी इंजीनियर थी और अनमोल के आफिस में जॉब करती थी। अनाया अनमोल को पंसद करती थी। पर कुछ कह नहीं पाती थी। इस डर से कि वह सुंदर नहीं थी। उसके एक गाल पर बर्थ मार्क जो था। अनमोल बहुत सी बातों को फिल्मी अंदाज में कहते हैं। अपने आफिस के माहौल में नायक कभी फिल्मों की कल्पना करता है तो कभी फिल्मों का उदाहरण देता है। लेखक से एक सवाल है कि नायक इतने आत्मीय प्यार के बाद भी 28 साल तक यह जानने की कोशिश क्यों नहीं करता कि अनाया कहां है और कैसे है?

जिंदगी 50-50 का मतलब ये नहीं है कि इसमें सिर्फ थर्ड जेंडर की बात कही गई है। जहां लड़की का शरीर है और वह लड़के जैसा सोचता है। या लड़के के शरीर में है और लड़की जैसी हरकतें करता है। बल्कि इसमें दुख-सुख, खूबसूरती-बदसूरती तथा त्याग के भी उदाहरण दिए गए हैं।

उपन्यासः जिंदगी 50 50
लेखकः भगवंत अनमोल
प्रकाशकः राजपाल एंड सन्स
मूल्यः 225/-
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